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Sunday, March 17, 2019

कुर्सी

शुक्रवार सुबह  सात बजे  में बठिंडा से हिसार की ट्रेन मे बैठा । सामान्य श्रेणी वार्ड था,  उस वक्त डिब्बे मे एक ही आदमी था।जैसे ही मै उसके बगल मे बेठा, उसने अजीब तरीके से देखा, उसे लगा शायद अब उसका सब सीटों पर जो एकाधिकार है वो खत्म हो जाएगा।
जैसे जैसे लोग बढ रहे थे उन महाशय की भोहें तन रही थी। मै बङे गौर से देख रहा था, इतने में एक महिला ओर पुरूष डिब्बे में आये पर कोई भी सीट खाली नही है, महिला अपने साथी सें कह रही थी मुझे कोई सीट दिलाओ उन दोनो ने आगे ओर पिछे दोनो ङिब्बों मे देखा पर कही कोई सीट नही। शायद महिला ने फिर से पुछा की किसी से बात करो सीट के बारे में, व्यक्ति चिल्लाया तुम्हे बैठना है तो तुम पुछ लो किसी से।
मैं ऊठा और अपनी सीट उस महिला को दे दी।
ट्रेन मे ही नही हमारे महान भारत मे सब जगह एसा ही है।
सीट चाहे बस की हो या किसी मंत्री की एक बार मिल गई तो इंसान उससे टस से मस नही होता। इंसान की फितरत ही एसी है, बस अपने लिए जगह चाहिए फिर किसी को गिराना भी पङे तो इंसान को कोई गुरेज नही।
इतिहास गवाह है इस कुर्सी के लिए बेटे ने बाप का ओर भाई ने भाइ का कत्ल किया है। पर ये कुर्सी कभी किसी की नही हुई।
शायद यही खासियत है कुर्सी की, बेवफा होकर  भी जनता से वफा करती हेै।
जिस दिन ये किसी एक से वफा कर लेगी  तो  वो गुलामी का मंजर खतरनाक होगा।।
कुर्सी का नशा ही कुछ ऐसा है बङे बङो की जात बदल जाती है।
पर फिर कुर्सी भी अपनी जात दिखाती हेै
देश मे जितने भी लोग इस कुर्सी पर बैठे अगर उन मे से किसी एक ने भी अगर अपने इमान से काम किया होता तो आज मंजर कुछ और होता।
पिछले कुछ वर्षो मे मैने भी एक दो चुनाव देखे ओर ये पाया की जनता ने जिससे भी उम्मीद लगाई उसीने जनता की बैंड बजाई।
मगर फिर जनता भी अच्छे से बजाती है।
अब सवाल ये हे हम कब तक एक दूसरे को बजाते रहेंगे
अब वक्त आ गया है एक दुसरे को सुनने का।

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मेंटल ही है

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